Natasha

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राजा की रानी

बाहर आकर मैं बरामदे में एक मोढ़े पर बैठ गया। कितनी ही देर बाद, शायद, दीपक जलाने के लिए रोहिणी बाबू बाहर आए और भयभीत हो उन्होंने पूछा, “कौन है?”

मैंने आवाज देकर कहा, “मैं हूँ श्रीकान्त।”

“श्रीकान्त बाबू? ओह...” इतना कहकर वह तेज चाल से नजदीक आए, भीतर जाकर उन्होंने दीया-बत्ती की और फिर मुझे भीतर ले जाकर बिठाया। इसके बाद किसी के भी मुँह से कोई बात न निकली- दोनों ही चुपचाप बैठे रहे। सबसे पहले मैंने ही मुँह खोला। कहा, “रोहिणी भइया, यहाँ अब क्यों रहते हो? चलो मेरे साथ।”

रोहिणी ने पूछा, “क्यों?”

मैंने कहा, “यहाँ आपको कष्ट होता है इसलिए।”

रोहिणी कुछ देर ठहरकर बोला, “कष्ट अब मुझे क्या है!”

ठीक है! किन्तु, ऐसी अवस्था में तो आलोचना की नहीं जा सकती मैं उसका किस प्रकार तिरस्कार करूँगा, क्या सत्परामर्श दूँगा आदि सब सोचता-सोचता घर से चला था, किन्तु, यहाँ वे सब विचार बह गये। नीतिशास्त्र की पोथी इतनी अधिक नहीं पढ़ी थी कि इतने बड़े प्रेम का अपमान कर सकूँ। कहाँ गया मेरा क्रोध, कहाँ गया मेरा विद्वेष! समस्त साधु-संकल्प अपना सिर नीचा करके कहाँ छिप रहे, पता भी न चला।

रोहिणी बोला कि उसने वह प्राइवेट टयूशन छोड़ दी है क्योंकि उससे तन्दुरुस्ती बिगड़ती है। उसका दफ्तर भी अच्छा नहीं है, बड़ी कड़ी मेहनत पड़ती है। नहीं तो अब कष्ट क्या है।

मैं चुप हो रहा। क्योंकि इसी रोहिणी के मुँह से कुछ दिन पहिले इससे ठीक उलटी बात सुनी थी। वह कुछ देर चुप रहकर फिर कहने लगा, “ऑफिस से थके-माँदे लौटने पर यह राँधना-रूँधना तो बड़ी झुँझलाहट पैदा करता है, क्यों न श्रीकान्त बाबू?”

मैं और क्या कहता? आग बुझ जाने पर केवल जल से ही तो इंजन चलता नहीं, यह तो जानी हुई बात है।

फिर भी, वह यह स्थान छोड़कर दूसरी जगह जाने को राजी नहीं हुआ। कल्पना की तो कोई सीमा निर्दिष्ट कर नहीं सकता, इसलिए उस बात को नहीं छोड़ता, किन्तु, किसी असम्भव आशा ने उसके मन के भीतर भी किसी तरह आश्रय नहीं पाया था सो मैं उसकी कुछ बातों से ही जान गया था। फिर भी क्यों वह इस दु:ख के आगार को छोड़ना नहीं चाहता, यह अवश्य ही मैं नहीं सोच सका। किन्तु, उसके अन्तर्यामी के अगोचर नहीं था कि जिस हतभागी के घर का रास्ता रुद्ध हो गया है, उसे इस शून्य घर की पूँजीभूत वेदना यदि खड़ा न रख सके तो उसे मिट्टी में मिलने से रोकना इस दुनिया में किसी के लिए भी सम्भव नहीं है।

अपने डेरे पर पहुँचते-पहुँचते कुछ रात हो गयी। घर में घुसकर देखा कि एक कोने में बिस्तर लगाकर एक आदमी सिर से पैर तक कपड़ा ओढ़े सो रहा है। नौकरानी से पूछने पर उसने कहा, “शरीफ आदमी हैं।”

“इसलिए मेरे कमरे में!”

भोजनादि के उपरान्त उन महाशय से बातचीत हुई। उनका मकान चटगाँव जिले में है। करीब चार वर्ष के बाद उनके लापता छोटे भाई का पता मिला है और उसे वापिस घर ले जाने के लिए वे आए हैं। वे बोले, “महाशय, कहानियों में सुना था कि पुराने समय में कामरूप की स्त्रियाँ विदेशी पुरुषों को- भेड़ बनाकर बाँध रखती थीं। न जाने उस समय वे क्या करती होंगी; किन्तु इस जमाने में बर्मा की स्त्रियों की क्षमता उनसे तिल-भर भी कम नहीं है, सो मैं नस नस से अनुभव कर रहा हूँ।”

और भी बहुत-सी बातें करने के बाद उन्होंने अपने छोटे भाई के उद्धार करने के लिए मेरी सहायता की भिक्षा माँगी। मैंने बचन दिया कि उनके इस साधु उद्देश्य को सफल करने में मैं कमर बाँधकर लग जाऊँगा। क्यों, सो कहने की जरूरत नहीं है। दूसरे दिन सुबह ढूँढ़-खोज करके उनके छोटे भाई की बर्मी ससुराल में जा पहुँचा। बड़े भाई आड़ में रास्ते के ऊपर चहल कदमी करने लगे।

छोटे भाई उपस्थित नहीं थे, साइकिल लेकर सुबह घूमने के लिए बाहर गये थे। मकान में सास-ससुर नहीं थे, केवल स्त्री अपनी एक छोटी बहिन को लेकर एक-दो दासियों सहित वहाँ रहती है। इन लोगों की जीविका बर्मा-चुरुट बनाना था। उस समय सब इसी काम में लगे हुए थे। मुझे बंगाली देखकर और सम्भवत: अपने पति का मित्र समझकर, उन्होंने मेरा आदर के साथ स्वागत किया। बर्मी स्त्रियाँ अत्यन्त परिश्रमी होती हैं, परन्तु पुरुष बहुत ही आलसी होते हैं। वहाँ घर के छोटे-मोटे काम-काज से लेकर व्यवसाय वाणिज्य तक सब कुछ प्राय: स्त्रियों के हाथ में है। इसलिए, लिखना-पढ़ना सीखे बिना उनका काम नहीं चलता, परन्तु पुरुषों की बात अलहदा है। पढ़ना-लिखना सीखा हो तो भला, न सीखा हो तो लज्जा के मारे मरना नहीं होता। निष्कर्मा पुरुष स्त्री का उपार्जित अन्न नष्ट करके बाहर उसी पैसे से बाबूगीरी करता फिरता है और उससे लोगों को कोई अचरज नहीं होता। स्त्रियों भी छि:-छि:, मिनमिन, पिनपिन करके उसकी नाकोंदम कर देना आवश्यक नहीं समझतीं। बल्कि, यही किसी परिणाम में उनके समाज को स्वाभाविक आचार में शामिल हो गया है।

दस-पन्द्रह मिनट के बीच ही बाबू साहब 'द्वि-वक्र-यान' में लौट आए। सारी देह पर अंगरेजी पोशाक, हाथ में दो-तीन अंगूठियाँ, घड़ी, चैन आदि। काम-काज कुछ भी नहीं करना पड़ता, फिर भी देखा, हालत खूब अच्छी है। उनकी बर्मी पत्नी अपने हाथ का काम छोड़कर उठ खड़ी हुई और उनके हाथ से टोपी तथा छड़ी लेकर उसने रख दी। छोटी बहिन ने चुरुट दियासलाई आदि ला दिये, एक दासी ने चाय का सरंजाम और दूसरी ने पान का डब्बा ला दिया। वाह, इस मनुष्य को तो सबने मिलकर एकदम राजा की तरह रख छोड़ा है! नाम मैं भूल गया हूँ। शायद चारु-वारु ऐसा ही कुछ होगा। जाने दो, हम लोग न होगा तो केवल 'बाबू' कहकर पुकार लेंगे।

बाबू ने प्रश्न किया कि आप कौन हैं? मैंने कहा, मैं आपके भाई का मित्र हूँ। उन्होंने विश्वास नहीं किया। बोले, “आप तो कलकतिया हैं; मेरे भाई तो कभी वहाँ गये भी नहीं, मित्रता किस तरह हुई?”

किस तरह मित्रता हुई, कहाँ हुई, इस समय वे कहाँ हैं, इत्यादि संक्षेप से वर्णन करके उनके आने का उद्देश्य भी मैंने बता दिया और यह भी निवेदन कर दिया कि वे अपने भ्रातृ-रत्न के दर्शनों की अभिलाषा से उत्कण्ठित हैं।

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